Tuesday, April 10, 2007

लिखि कागज कोरे

भूमिका

“अंचरा के पीरा”(1996) के बाद ‘ठोमहा के पीरा’, चेतन भीरती के दूसर काव्य-सग्रह आय। “अंचरा के पीरा” ह युग युग ले सोसित, दमित, पीड़ित छत्तीसगढ़ महतारी के पीरा आय। ए खेतिहर देश के बीजहा धान ल तो मटिया लुका दे हावै, अब भविस्य के अंधियार आगू म पसरे हे अऊ अंचरा के पीरा ह रोज-रोज बाढ़तेच हे । सोन के कटोरा तो कब के रिता हो गय हे, सुसका भाजी अऊ पेज बासी बर चोला हर तरसत हे। खेत-खार दंदरगे हे, पांव म काँटा छवा गय हे। मनखे खोचका के मछरी कस तड़पत हे । बज्र अकाल म पेट सेप-सेप करत हे, मनखे रोटी के बोरहा म पथरा ल चाबत हे, हांक पारत पारत उंकर नरी भसियागे, फेर गरीबहा के गउ गोहार ला कोन सुनही ? कवि ए दुख अउ बिपत ले बांचे बर जनता के शक्ति के आराधन करथे उंकर विश्वास हे जँवारा के जोत कम जी भर के बरबोस त कुलुप अंधियारी कइसे नइ हटही ?

एक कती चेतन भारती ठलहा गिंजरइया संगी मन लो घर लहूटे के सलाह देथे त दूसर कती सोसक मन ल गरब झन करे के चेतौनी देथे । कवि ए दुख अउ पीरा ला दूर भगाय बर किसान मन ला “जागव जागव रे किसान” के मंत्रणा देथे । अपन धरम अउ करम ला बचाये बर पथरा कस ठोस होय के उनला प्रेरणा देथे । कवि चेतन भारती अन्याय अउ सोसन के उच्छेद बर कोरा भासन नइ देय, उन कारन के खोज करथे, अउ ओकर जरी म कुठार चलइया, सब विपत के कारण भाई-लोगन के उपेक्षा, आपस के झगरा लड़ाई आय, कवि कथे-“झगरा लड़ाई म लक्ष्मी रिसागे” ठउके बात आय तुलसी बबा भी केहे हावय-

जहां सुमति तहं सम्पत्ति नाना,
जहां कुमति तहां विपति विधाना ।

कवि चेतन भारती सुर्पनखा–महंगाई बर लक्ष्मन अउ भूख के सुरक्षा बर हनुमान के सुमिरन करथे। छत्तीसगढ़िया मन के सोसन कर्ता मन ल उंकर एक ठन सुघ्घर सीख हे –

अब नरी म डोरी झन फांसव
छानी म होरा झ भूंजव
एक्के कोरा ले सब झन आयेन
एक्के कोरा म सब ला जाना हे ।

गैर छत्तीसगढ़िया घलोक ल उन आने नइ माने, फेर हमर कोमल भाई-चारा के भावना ल ओमन कहां तक समझीन एकर बर कवि चेतावनी देत-देत ललकारे भी लगथे ।

असल म कवि चेतन भारती छत्तीसगढ़ी भासा साहित्य के मौन साधक आय, बिना हल्ला के उनतीस-पैतीस साल ले सरलग ळिखत आते हे । उन सफल आयोजक भी आय । कहूं देखा थें जादा, करथे कम । अइसन ल उन “बात के कर्रा अउ काम के पचर्रा” कथे । कहूं शांत-चित होके अपन बांटा के काम ल करत रथे ओमन ल देखाय के फुरसते नई मिले, जागेश्वर, रामेश्वर शर्मा, गौरव रेनुनाविक, सुशील वर्मा, “भोले” रसिक बिहारी अवधिया, चेतन भारती अइसने बात के कलमकार आय । कोनो भी साहित्य सम्मेलन या आन्दोलन म इनला सक्रिय देखे जा सकत हे । हंसमुख-विनम्र कवि चेतन भारती ल इहां अलग ले चिन्हे जा सकत हे । जउन भासा के अन्दरुनी ताकत लेके अत्तेक ताकतवर हो जाथे, के उंकर बात ले मान देहेच बर पर थे । विश्वेन्द्र ठाकुर के मुंहरन के चेतन भारती म हरिठाकुर जइसन संकल्प अउ नारायण लाल परमार जइसन कथन भंगिमा के दरसन होथे । ए हंसमुख चेहरा ल देखे भर म मया-पीरा के बादर उमड़े – उमड़े लगथे, ‘अंचरा के पीरा’ जइसन संकलन के सूबेच सुआगत होय हे, ये बात के साखी हमर वरिष्ठ कवि मन के ये उद्गार मन आय -

“चेतन भारती का कवि शिविर बद्धता से दूर विशुद्ध रचना धर्मिता के लिए समर्पित हे, वह कविता को फैशन नहीं बल्कि एक कलात्मक दायित्व समझता है ।”

(नारायण लाल परमार)

उनकी कविताओं के पीछे एक वैचारिक पृष्ठभूमि है, उसके पास एक निश्चित तर्क और चीजों को समझने के लिए जरुरी दृष्टि है । भारती को सामान्यजन की अपराजेय आस्था का कवि कहा जा सकता है।

( प्रो.विनोदशकर शुक्ल)

हरि ठाकुर के शब्दन म -
चेतन भारती के कविता म छत्तीसगढ़ ‘महतारी के पीरा’ हे । ये ही पीरा ह चेतन भारती के कविता बनके निकलथे। परमारजी एक ठन अऊ बात कती इशारा करे रहीन “चेतन भारती की कविताएं भविष्य में भी मनुष्य की निरीहता पतनोन्मुखता को सहन नहीं कर पायेंगी और मनुष्य के शोषन के आल-बाल हरमोला “ठोमहा भर घाम” के रचना मन मा सोरा आना व्यक्त होत देखाइ देथे, उकर चार डांड देखा-

बनाके टहलुवामोर जांगर,
मानुख पनके रुख जगायेबर ।”
लइका मन के कोंवर मन मढ़ावत,
जुवानी के फूल खिलावत।।
उछलत मतवारी मस्ती लाए बर।
देवारी के दिया अस मैं बरत हौं।।

हमर ये छत्तीसगढ़ हर अन्न-जल, जंगल अउ रत्नन सेतरी उपर ले भराय हे। का चीज नइये इहां। दू करोड़ आबादी के तीन चउथाई मनखे देहात म रइथे अउ की करोड़ मनखे के भरन-पोसन कर जियत मरत ले खेत-खार, अउ कल-कारखाना म खटत हे। कवि चेतन भारती हर जोरा तराई गांव के किसनहा बेटा आय, भले ही आज वो रायपुर के बासिंदा हो गे हे फेर उंकर आत्मा म तो गांव-गंवई के बोली अउ संस्कृति हर बसे हे। भासा के संस्कार तो उनला ठेठ-गंवई गांव सेमिले हे, एकरे कारन उंकर हिरदे म कमिया किसान कमेलिन-बनिहारिन मन बर सब ले जादा मया-पीरा हे ‘इकर उघरा तन अउ मन उज्जर’ हे। ‘कुंवारी घाम के तीपन म चुहत पछीना ले थपथपाए बदन’ म ए कवि हर धरती ल हसियात देखत, डारा पाना के पोर पोर म नवा पिका फूटत देखथे, बंगाला के चटनी अउ नानकुन अंगाकर, पेट भर पानी म संतोष करइया कमिया-किसान ह कवि के हिसाब म देख के हर मोरचा म तैनात हे इहां तक सन् 1857 के गदर घलोक म वोसामिल रहीस । खेतखार म हीनहीम वोमैदान-जंग घलोक म अपन कमाल देथा चुके हे-

“देस के खातिर मरे मिटे बर,
जम्मो के भूख मिटाय बर
तभो मय अन्न उपजात रहेव,
तभो पागा बांधे अड़े हंव”


गांधी बबा के पटुका पहनने वाला ए किसान आजो ले खावा बनके कलेचुप उघरा खड़े हे। जेठ के तफर्रा, पलपलात अंगराकस भुईंया, चउमास के गर्रा-धूरा बादर पानी, माघ पूस के करा जाड़ म ए कमिया किसान हर मनखे के चारा खातिर, आठों पहर भइसा कस खंटत हे, फेर कुकादर परलोखिया मनखे उंकर ए तियाग-तपइसा ल नई समझे पइन, उल्टा उनला गंवार समज के हिकारत ले देखथे । दिन रात खंटने वाला ए गंवइहा मन के लहू पिये म सोसक मन ला थोर को न लाज हे न झिझक हे। फिर ए क्रांति दृष्ट्रा कवि ह गंभीर समुंद के बडवानल ल देख डारे हे, वो धाम ल खुंटी म टांग के खेत-खार म खंटत हे एकर मतलब ए नहीं के लंदफंदिया मन के नार-फांस ल नई समझत हे, कवि के चतावनी है-

निच्चट पर बुधिया झन जानव,गंवई गांव अब जागत हे।
कुदारी बेंठ मे उचका के कुदाही, छाए उसनिंदा भागत है।।


आला ल जादा झन कल्लावा, नइ तो बात दुरिहा ले बिगड़ ही-

सागर सही ओ चुपचाप रहिथे
झन समझव ये उंकर कमजोरी ये
कभू बड़ोरा बनके जुरियाये आहीं
तब झन कहिहव अंगरा उंकर बोली ये

“ठोमहा भर घाम” के केन्द्रीय भाव एही चेतावनी अउ अन्याय के खिलाफ संखनाद हर आय। छत्तीसगढ़ राज बनेले कोन छत्तीसगढ़िया ल सुख नइ लागिस होहय, लेकिन जउन पर्दा के पीछू म खेल सुरु होय हे, ओंकरो बर कवि के निगाह हर एकदम तेज हे-

नवा राज म चरो मुड़ा मचे हे शोर
जम्मो कुरिया म छाही अंजोर ।
छत्तीस बरस के हुड़मा लइका
छत्तीसगढ़िया गिंजरत हे खोर खोर ।


उत्ती मुड़ा के चिमनी भभकत हे, आगी गुंगवात हे । ए बस्ती म ननजतिया मन ला अब सम्हल-सम्हल के चले बर परही, काबर इहां के जुबानी जाग चुके हे। बेरोजगारी के फोरा म तड़पत जुवानी ल उंकर सीख हे के जुवानी के पत्ता गलत झन चलव, नइतो एकर लाभ मिठलबरा मन ल मिल जाही। नवा राज के कर्ता-धर्ता मन ल कवि चेतन भारती ह एक आखर में बहुत कुछ कहि दे हावे। “देस के जीवरा खेती किसानी” अइसन डाड़ ल तो नारा बनाके विधान सभा अउ संसद भवन के बड़े दुवार म अमिट स्याही से लिख देना चाही । कवि चेतन भारती किसान के बेटा आय । वो अन्न कुंवारी के महिमाल पौराणिक प्रसंग तक ले जा थे।

हंड़िया म चटके एक ठन सीथा
आज नाचत हावे उमंग म

एहर बोही सीथा तो नोहय जेकर बर कुंवर कन्हाई जी लगाय रहीस आज जेकर ए सीथा ल मुंह म डारतेच साठ हड़िया हर खुदबुदाय लागे रहीस । ए कवि हर किसान के मान बढ़इया कवि आय, ओकर श्रम के गाथा लिखने वाला कवि आय। बस्सात जुन्ना पहिरे वोला कतका बरस बीत गइस फेर न तो ओमा दीनता के भाव झलकथे, न भय के, बल्कि अपन मेहनत बर ओला बड़ गुमान हे, वोकर स्वाभिमान के एक ठन बानगी देखा-

मोला अड़हा अढ़ निया झन मसझव
महूं कलम के धऱइयया अंव
खेत-खार मोर कागज पाथर
मेहनत के पन्ना भरइइया अंव

कवि गांव-गंवई म सोसन के जइसन कुचक्र चलत हे, ओला तो वोहर समझतेच हे, फेर अंतराष्ट्रीय समस्या घलोक कती ले वो बेखबर नइये। आतंकवादी मुसुवा अउ नक्सलवाद के फैलान उन खूबेच समझे। सोसक अउ उतियाचारी मन चेतन भारती के कविता म चेहरा बदल-बहदल के आये, कोन इहां महतारी के घर में आग लगइया मन सुखा हे, कूं ढोढ़िया लोटाहे, पर्वा म बइठइयया घुघवा, दवंधतिया, उजबक गोल्लर, नून लगिया चोरहा, अंध्यारी अंजोरी के मिलावट करइयया, धनहा के लहरा ल देख मुस्काने वाला कोकड़ा, खरही म कुंडली मारे फूंपकारने वाला सांप, ये सब प्रतीक मन नेता अफसर अउ बेपारी मन के आय । टकरहा नेतामन बर दू लकीर इहां भारी परही-

टकरहा होगे तैरि के अब
लहु के भरे-भरे संसद के तरिया में

छत्तीसगढ़ राज बनिस त ये हराम खोर मन ल पहिली से जादा मन माना लूटे के मौका मिलगे। चेतन भारती गांधीजी के चेला आय उन रक्तक्रांति म बिस्वास नइ करके अपन संगी जंवरिहा मन ल अउ मन जुरों से सजोर करथे काबर, ताकतवर ले विपत्ति ह दु हाथ घुंच के रथे। कवि चेतर भारती ह महतारी के पीरा ले गांव के चेलिक मन ल बताथे अउ राजनीति के मेकरा-जाला घलोक के रचना ल समझथे। वो खुसी म माते, करमा, डंडा के नचइया ददरिया के गवइया हुडमा चेलिक चन्दू, गंगू, दुकालू, तिहारु, हीरु, बिसरु मन ल जउन पर्दा के पाछू म होत हे तेला बटबट ले देखाथे गंवई गांव के राज म सुकुला उगाये बर देख मुसुवा अउ बिलाई के लुका झिपी ल।

कवि तोड़ फोड़ ले जादा संगी जंवरिहा के जोम म जादा बिस्वास करथे। अमीरी-गरीबी अउ दुख के कारन कवि हर हमर अशिक्षा अउ आपसी कलर-कइयया ल बताथे, अउ परिवार नियोजन, साक्षरता,सुमत, ऊंचनीच-छूआछूत के उच्छेत करे बर जोरियाथे । सहर के रहियया नौजवान मन ल भी उंकर सीख हे-

चल तो रामू थोरिक गांव चली,
छोड़ तो थौंथियावत डगर ल।
सुरता करहो तरिया के सुरुज,
तउज घुंगिया-धूर्रा के फरक ल ।।


चेतन भारती ठस व्यवस्था म बदलाव लाए बर ब्याकुल हे,धरती मे मान बढथ़ाए बर, अपने घरघुंधिया सजाए बर, नवजोत जलाए बर उन अपन संगी जंवरिहा ल अवाज लगाथे । वलनिर्माण के उन खूबेच गीत लिखे हवय उन्नत बीज, जुवानीके पत्ता, सुख के छइहां, जिन्गी के धुरी, उजरे घरघुंदिया, तरिया के पथरा उंकर सिरजन के गीत आय। उंकर आव्हान म गजब के खिंचाव हावौं दू चार डांड अउ देखा-

आवन दे रौनिया धुंधरा हटन दे
जिन्गी के कहानी नवा गढ़न दे
मत रुंधव सुनता के दुवारी ला
काली अवइया हे सुरुज तोर गांव म


एक आस्थावादी कवि हर मनखे के बेहतरी बर हरदम सोचथे । उनला प्रकृति से भी खूबेच प्रेम हे, उंकर कविता म प्रकृति के संगे-संग मनखे भी हवय । उंकर प्रकृति वरनन म छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति हर बोले गोठियाय लगथ। बसंत के एकतन सिंगार परक गीत पंक्ति देखा-

जाड़ के झरती म आगे सुग्घर महीना
झांकत हावे देख रुख म नवा पिलखी
पाके पाना हरियागे धरती के अंचरा
भोंगर्रा भुलागे छोड़ दीस जुन्ना रद्दा
चलव नाचव डंडा, जमो बनके गुवाल
तन रचव मन रचव मगन हो गाले फाग


होरी तिहारी म कवि हर जुरियाके, मुठा भर-भर के गुलाल फेंकत हे, मस्ती उल्लास उमंग म वो कभू उतारु मुंह के नई दिखै। अइसने लटालट लहरत धान के बाली “ठोमहा भर घाम”, मदरस के मगन माछी, हरर-हरर के दिन अरसी के फूंक फूंक पांव बढ़ाना, लाली लाली गुलहर के हांसी जइसन सजल बिम्ब म प्रकृति के संग नारी मन के उल्लास, कोमल भावना अउ बांझ के पीरा घलोक ल व्यक्त करे म कवि हर अपना संवेदनसीलता के परिचय देथे।

कवि चेतन भारती प्रकृति अउ मनुष्य के क्रियाकलाप ल संचालन करइयया समय के प्रति भी बड़ सचेत हे। नांगर कुटेला के उवै के पहिली जगइया, धान मिसइय्या कमिया के कड़क चोंगी के आगी ओला बड़ भाथे। कवि के कहना है के “समय निकल जाथे, बात रहि जाथे, गये समय नइ लहुटै” “समय घलोक ल बदलना जरुरी हय” एमेर कवि के काल संबंधी अवधारणा ल समझे जा सकत हे। उंकर अनुसार जिंदगी जिए बर आय, आदमी ल पेट भर खाना तन बर कपड़ा अउ रहे बर घर दुवार जरुरी हे। कवि के बिनती हे-ए धरती के मरजाद बचाय बर हमला अपने बंद मुठा ल खोलना जरुरी है । कवि ह ए संकलन म इहां के तिरथ-बरथ अउ महापुरुष घलोक मन के गौरव गान करे हे। ओहर कौसिल्या महतारी के मइके छत्तीसगढ़ के अस्मिता ल जगाय बर, अपन अस्थावादी स्वर ल अइसन सब्दन म मुखर करे हावय-

आज नीहि ते काली अंजोरी
ओस के बूंद जिये के आस हे


कवि के ए करम के सोच अउ जमीनी लड़ाई म, ए धरती के मया पीरा ल व्यक्त करे म वोकर अनगढ़ भासा हर भारी तेजधार हो गय है। ठेठ देहाती उच्चारण स्वर में भी अउ मुहावरा के तगड़ा प्रयोग से कवि चेतन भारती के भाषा हर बड़ सुखकर प्रतीति बन गय हय, मोला बिस्वास हे साहित्य रसिक मन ही नहीं छत्तीसगढ़ से प्रेम रखइयया घलोक मन ए किताब के रचनामन ला खूब चाव से बढ़ही-सुनही। भविष्य म चेतन भारती एकरो ले जादा सुग्घर कृति देवै, ए ही मोर कामना हे, भगवान से बिन्ती हे।

डॉ. बल्देव
स्टेडियम के पीछे
रायगढ़, छत्तीसगढ़

1 comment:

अजीत पाणिग्राही said...

जय हो! हमर छत्तीसगढ ला तुम्हर जैसे मेनसे मन के जरुरत हाव। धन्यवाद!