Tuesday, April 10, 2007

तरिया के मछरी

अब कोन धरे गिर जावत धारन,
जर जात ल खारो सबे करि जाथें।
दुनों पार खदान हे स्वारथ के,
मझधार फंसाय सबे चले आथें ।।
कहूं संग दिये बर तोला इहां, नहीं
पतवार सम्हार खुदे करि आबे ।

गरी खेलइया मन बाढ़ीन कतको,
चले आवत लोभ के चारा गुथाए ।।
तरिया के मछरी कस अरझाए परे,
तब लिगरी के आगी कोन बुझाए ।
अंगुरी म नचावत कोन तोला।
अब जान, पागा खुद बांधि आबे ।।

पहती नरियावत कुकरा बपुरा,
चल जाग उठव कुदारी धरे आवव ।
हात गोंड़ पोटारे के परागे समे,
सुम्मत के रूख लगा चले आवव ।
बिरथा के तना तनी कर दुरिहा ,
सुर में सुर मिलावत चलि आबे ।

उठाय बिड़ा कहूं जुर मिल के,
तब पहार घला धनहा बन जाये ।
बरत रहय तोर अजम के दिया,
चुहकइया फाफा फुन्दी जर जाये ।।
करके भरोसा अपन करम के,
उठाव चतवार चलात चलि आबे।

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