चलव अब ते सम्हलन,
महतारी के कर्जा चुकाना हे ।
अपन बांह के करके भरोसा,
नवा जिन्गी के जोत जलाना हे ।।
स्वारथ में आँखी मुंदे हम,
परमारथ ल घला चबा डारेन ।
अपनेच ल बड़का कहाए खातिर,
अपन धरम के घेंघा दबा डारेन ।।
चल तो देखव बढ़के आगू,
उझरे धर धुंधिया अपन सजाना हे ।
चलव अब तो ....
महतारी के दुनों हाथ म,
आगी लगादीन दोखहा मन ।
दसो अंगुरिया के परे फोरा म,
नुन लगादीन चोरहा मन ।।
चारो कोती अबड़ अति मचे हे,
जरत अपन घर बचाना हे ।
चलव अब तो....
अंधियारी अंजोरी के मिलवट म,
घिघियावत हावे मानुखपन ।
मुक्का बनके सब देखत हावें,
चिचियावत हावे दर्रे किसाने मन ।।
ठानव मानव अब तो जानव,
भारत महतारी के मान बढ़ाना हे ।।
चलव अब तो ....
Tuesday, April 10, 2007
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